सोमवार, 5 अप्रैल 2010

हमें तुम ख़ार रहने दो,

मैं काग़ज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूँ,
नहीं है काम ये आसां मगर अक्सर बनाता हूँ।


मेरी हालत तो देखे पास आकर उस घड़ी कोई,
मैं अरमानो में अपने आग जब हंस कर लगाता हूँ।

ये जितने फूल हैं ले लो हमें तुम ख़ार रहने दो,
ये दामन थाम लेंगे मैं इन्हें रहबर बनाता हूँ।

नज़र आती है मुझको हर हसीं चेहरे की सच्चाई,
मैं दरपन को उठा कर जब कभी पैकर बनाता हूँ।


जगा कर दर्द हर दिल में बुझा दो आग नफ़रत की,
मैं अपने अश्क़ से पैमाना- ए- कौसर बनाता हूँ।


जहाँ से दूर कोसों हो गया हो दर्द और आहें,
मैं ऐसे महल तख्तों-ताज को ठोकर लगता हूँ।

उठाई है क़लम हमने यहाँ तलवार के आगे,
मैं दुनिया को क़लम का आज ये जौहर दिखता हूँ।


मेरे गिरने पे क्यों 'अनवार' हंस पड़ती है ये दुनिया,
मैं ठोकर खा के अपनी ज़िन्दगी बेहतर बनाता हूँ।

                                      शायर- अनवारुल हसन
                                      पेशकश -रोहित "मीत"

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