रविवार, 4 अप्रैल 2010

इक सूरत की चाह में फिर

भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे, मौला ख़ैर करे

इक सूरत की चाह में फिर काबे को दैर करे, मौला ख़ैर करे

इश्क़विश्क़ ये चाहतवाहत मनका बहलावा फिर मनभी अपना क्या
यार ये कैसा रिश्ता जो अपनों को ग़ैर करे, मौला ख़ैर करे

रेत का तोदा आंधी की फ़ौजों पर तीर चलाए, टहनी पेड़ चबाए
छोटी मछली दरिया में घड़ियाल से बैर करे, मौला ख़ैर करे


सूरज काफ़िर हर मूरत पर जान छिड़कता है, बिन पांव थकता है
मन का मुसलमाँ अब काबे की जानिब पैर करे, मौला खैर करे

फ़िक्र की चाक पे माटी की तू शक्ल बदलता है, या ख़ुद ही ढलता है
"बेकल" बे पर लफ़्ज़ों को तख़यील का तैर करे, मौला ख़ैर करे

                                             शायर -पदम् श्री बेकल उत्साही
                                                          पेशकश - रोहित "मीत"

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